मेरा माज़ी मेरे काँधे पर कैफ़ी आज़मी

 

अब तमद्दुन की हो जीत के हार

मेरा माज़ी है अभी तक मेरे काँधे पर सवार

आज भी दौड़ के गल्ले में जो मिल जाता हूँ

जाग उठता है मेरे सीने में जंगल कोई

सींग माथे पे उभर आते हैं

पड़ता रहता है मेरे माज़ी का साया मुझ पर

दौर-ए-ख़ूँख्वारी से गुज़रा हूँ छिपाऊँ क्यों पर

दाँत सब खून में डूबे नज़र आते हैं


जिनसे मेरा न कोई बैर न प्यार

उनपे करता हूँ मैं वार

उनका करता हूँ शिकार

और भरता हूँ जहन्नुम अपना

पेट ही पेट मेरा जिस्म है, दिल है न दिमाग़

कितने अवतार बढ़े लेकर हथेली पे चिराग़

देखते रह गए धो पाए नहीं माजी के ये दाग़


मल लिया माथे पे तहज़ीब का ग़ाज़ा, लेकिन

बरबरियत का जो है दाग़ वोह छूटा ही नहीं

गाँव आबाद किए शहर बसाए हमने

रिश्ता जंगल से जो अपना है वो टूटा ही नहीं


जब किसी मोड़ पर खोल कर उड़ता है गुबार

और नज़र आता है उसमें कोई मासूम शिकार

जाने क्यों हो जाता है सर पे इक जुनूँ सवार


किसी झाडी के उलझ के जो कभी टूटी थी

वही दुम फिर से निकल आती है

लहराती है


अपनी टाँगो में दबा के जिसे भरता हूँ ज़क़न्द

इतना गिर जाता हूँ सदियों में हुआ जितना बुलन्द


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